हिंदुस्तानी मजदूरों के इज़राईली प्रवास का विरोध बेतुका है

इज़राईली सरकार की बढ़ती बरबरता का एक नतीजा यह निकला है कि उसने हज़ारों की संख्या में निर्माण-काम में लगाए फ़िलिस्तीनी वरकरों का वर्क पर्मिट रद्द कर दिया है। इसके चलते निर्माण उद्योग का पहिया रुक गया है (याद रहे कि इज़राईल में नयी बिल्डिंगें बनाने का काम चलता रहना वहाँ की सरकार का नये यहूदी नागरिकों को बसाने की नीति का अनिवार्य अंग है) या धीमा हुआ है। शायद इसी के चलते वहाँ की मीडिया में यह बात फैली है कि इज़राईली सरकार भारतीय मजदूरों को वहाँ निर्माण कार्य के लिए बुलायेगी। ऐसा प्रस्ताव पारित हो जाना संभव भी है। इसमें बहुत सारे पहलू उजागर होते हैं –

  1. इज़राईली सरकार अपनी राष्ट्रीय सीमाओं में मजदूरी नीतिगत तरीके से, कड़े पर्मिट सिस्टम के तहत चलाती है। सरकार की सीधी मध्यस्तता इस बात में है कि कौन वहाँ काम करेगा और कौन नहीं।
  2. इज़राईली समाज अपने नागरिकों को कठोर मेहनत-मजदूरी से ऊपर रखना चाहता है, और इस भूमिका में अन्य देश के लोगों को देखता है (चाहे फ़िलिस्तीनी चाहे हिंदुस्तानी)। याने कि इज़राईली समाज अपने आप को बुर्जवा या मध्यम वर्ग के रूप में ही देखना चाहता है।
  3. राष्ट्र-निर्माण और राष्ट्र-फैलाव की झगड़ालू नीति इज़राईल को स्थिर उत्पादन क्षेत्र बनने से रोकती है, और संचालक-मजदूर के रिश्ते को अस्थिर बनाती है। इज़राईल अपने आप को जिस आधार पर एक राष्ट्र घोषित करता है, ना ही केवल वह मजदूरी-मंडी प्रथा को अस्थिर बनाता है, बल्कि राष्ट्र-निर्माण की यह नीति ही दिखाती है कि जीवित, स्वेच्छापूर्ण रिश्तों पर समाज बनाने से ईज़राईली संचालक वर्ग कितना दूर है। यह आज पूंजीवादी रिश्तों की सड़न का ही एक दृश्य है।
  4. इस नीति के आधार को भी समझना ज़रूरी है – ज़मीन पर निर्मम कब्जा, ठेकेदारों-संचालकों को राष्ट्रीय सहायता, आधुनिक विज्ञान और टेक्नोलोजी, और सबको जोड़ने के लिए राष्ट्र के प्रति अतार्किक भावुकता (यहूदी पेहचान के आधार पर)। जहाँ तक सवाल प्राथमिक कृषि आधार का था (किब्बुत्ज़), जहाँ इज़राईली नागरिक अपने आप को कृषक-छोटे उत्पादक के तौर पर देखते थे, वहाँ तक यह फ़ोरमुला अपने आप में पूर्ण लग सकता है। किंतु जब पूरा समाज अपने आप को मध्य-वर्गीय और मजदूर-न-होने के तौर पर देखता है, एक आधुनिक पूंजीवादी तंत्र के तौर पर देखता है, वहाँ किसी “अन्य” मजदूरों का इंतेजाम करने का सवाल खड़ा होता है।

यह एक अच्छी मिसाल है कि कैसे समाज में बढ़ती उत्पादकता और बढ़ती संपन्नता के साथ मजदूरी का समाजिक रिश्ता अधिकाधिक असंगत और अतार्किक होता जा रहा है। बुर्जवा-मध्य-वर्ग अपने आप को और अपने लिए काम करते मजदूरों को सांस्कृतिक परिभाषा में ढालने की कोशिश कर रहा है। इसका यह भी मतलब हुआ कि जो सांस्कृतिक पेहचानें पिछले सौ सालों में बनी हुई हैं, वे सब समान नहीं हैं, उनमें भी ऊँच-नीच, अमीरी-गरीबी भरपूर है, और इसी के आधार पर अभी सोचा जा रहा है कि वरकर कहाँ से लाए जा सकते हैं?

यह सवाल समस्त वैश्विक स्तर पर इस रूप में उभर रहा है। ऐसा भी नहीं कि यह कोई नया सवाल है। यूरोपीय गृहयुद्ध (विश्वयुद्ध) के बाद से ही वहाँ के देशों ने अपनी तहस-नहस सभ्यता की ईमारतों को दोबारा से उभारने के लिए गैर-यूरोपीय लोगों को बुलाया, जिनमें से कईयों को वहाँ रुकने का न्यौता दिया गया। लंदन की मेट्रो के काम में वेस्ट इंडीज़ के वरकर काम पर लगे। तुर्की से वरकर लाये गये जर्मनीं में पुनर्निर्माण के लिए, जिनके वंशज आज भी वहाँ के नागरिक बतौर रह रहे हैं। इसमें हमें दिखता है कैसे इन देशों की मजदूर आबादी या तो युद्ध में खत्म हो चुकी थी, या तो पहले की तरह काम करते रहने के लिए राज़ी नहीं थी। कई जगहों पर वरकरों ने पूंजी के झगड़ालू संचालकों का राज डगमग देख सत्ता ध्वस्त करने का भी प्रयास किया, मगर बड़ी अंतर्राष्ट्रीय ताकतों ने (चाहे अमरीकी पूंजीवादियों ने या चाहे सोवियत समाजवादियों ने) सत्ता को बनाये रखा, और मजदूरों के काम के विरोध की परिस्थिति में बाहर से नये मजदुर बुलाकर दोबारा से पूंजीवादी रिश्तों को उभारने का प्रयास किया।

इस प्रक्रिया में पुराने वरकरों का नये वरकरों के प्रति कुंठा होना स्वाभाविक है। और यह कुंठा समय के चलते ठोस आकार लेने लगती है (जैसे कि कुशल-अकुशल वरकर के बीच, मध्यवर्गीय-निम्नवर्गीय वरकर के बीच, शारीरिक-बौद्धिक वरकर के बीच टकराव)। मगर जब तक विश्व में असमानता रहेगी, वरकरों का यह प्रवास भी चलता रहेगा, और एक वरकर के प्रतिरोध को दूसरे वरकर से बदली करना भी चलता रहेगा। हम जहाँ खड़े हैं, वहाँ इस प्रक्रिया ने पहले से बहुत ज़ोर पकड़ लिया हुआ है।

उदाहरण के तौर पर फ़्रांस और जर्मनी जैसे देशों ने – जहाँ अफ़्रीकी और अरब देशों से बहुत मजदूर आकर काम करते हैं – हाल ही में यह प्रस्ताव जोर पकड़ रहा है कि ये वरकर बहुत विरोध कर रहे हैं, इन्हें सबको वापस भेज दिया जाये। और इसके लिए भी वे भारत जैसी जगहों से वरकर लाने के प्रयास में लगे हैं। इज़राईल में पहले से बहुत सारे नर्स भारत से जाकर कार्यरत हैं। कुछ तो होगा इज़राईल के बारे में कि वहाँ नर्स नहीं मिल पा रही हैं। भारत जैसी जगह वरकरों का अच्छा स्त्रोत है, क्योंकि यहाँ आबादी अधिक, शिक्षा और ट्रेनिंग सस्ती मगर नौकरियाँ कम हैं। इस लिए भी यहाँ से वरकर अधिक वेतन पर काम करने वहाँ जा रहे हैं।

इस प्रक्रिया पर यूनियनों की कोई खास पकड़ है नहीं। भारत में सेंट्रल यूनियनों की भूमिका सरकारी सलाहकारों से भी नीचे की हो चुकी है, क्योंकि कम से कम सलाहकारों की सलाह सुनी तो जाती है। इसके बावजूद यूनियनों ने वरकरों की जान का खतरा बताते हुए (और इज़राईली नीति का विरोध करते हुए) सरकार से कहा है कि निर्माण-काम में वरकरों को वहाँ भेजने का सुझाव मना कर दिया जाये। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह वैचारिक तौर पर एक पिछड़ा हुआ रवैया है। यहाँ की यूनियनें किस कदर अब तक राष्ट्रीय दृष्टिकोण से उभर नहीं पाई हैं, यह केवल इसी दुखद-हास्यस्पद स्थिति को दिखाता है। वे हमेशा से भारतीय वरकरों को बाहरी बदलाव से बचाने के बहाने पिछड़ा हुआ देखना चाहती रही हैं (इसमें वे यहाँ के पूंजी संचालकों के साथ रही है, जो उत्पादन के पुनरायोजन में बहुत धीमे रहे हैं)।

हमारी समझ में भारतीय वरकर इसी स्थिति में हैं कि वे जहाँ काम का बुलावा आये, वहाँ जायेंगे। खासकर ऐसे देशों में जहाँ वे भारत से अधिक वेतन कमा पायेंगे। इस पर किसी तरह का अतार्किक प्रतिबंद लगाना यहाँ के वरकरों में मजदूर चेतना को दबाने से कम न होगा। ना ही केवल यह मजदूरों को बेहतर वेतन दिला रहा है, बल्कि यह भारत में भी मजदूरी बढ़ने के लिए सहायक है। यहाँ का पूंजीपति वर्ग अब तक इतना आगे नहीं बढ़ा है कि सरकार को कहे, हमारे वरकरों की हमें अधिक जरूरत है। दूसरी तरफ भारतीय मजदूर वर्ग, जो कि अब तक वैश्विक अनुभव से काफ़ी कटा हुआ रहा है, व्यापक और वैश्विक परिस्थिति से बेहतर अवगत होगा। अपने सांस्कृतिक पतन में फँसे पश्चिमी खेमेे के संचालक वर्ग में शायद यह मान्यता है कि अफ़रीकी या अरब देशों के वरकरों के मुकाबले भारतीय वरकर उतना उत्पात नहीं मचायेंगे। आज हमारी मजदूर चेतना के लिए यही कसौटी होगी कि इस मान्यता का भी भंग होना ज़रूरी है। क्यों ना भारत का मजदूर वर्ग भी इज़राईल और वैश्विक पूंजीवाद का पतन और करीब से देखे, और क्या यही अनुभव उसे अपनी विपलवी चेतना के पास नहीं ले जायेगा?

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